HISTORY

Jindal Kuldevi

Maharaja Agrasen, forefather of Aggarwals, was born to Raja Vallabh Sen at Pratap Nagar (now in Rajasthan) before Mahabharata began. When he was of 15 years age, the Mahabaharat war started and during the war, Raja Vallabh Sen fought and sacrificed his life for Pandavas.

Maharaja Agrasen had 18 wives, who gave birth to 54 sons and 18 daughters. After his father's death, Maharaja Agrasen established his kingdom at Agrok ( now called Agroha, near Hissar, Harayana). He divided his Republic into 18 States. In order to please Lord Vishnu and Devi Mahaluxmi, Maharaja Agrasen performed yajnas. After 17 Yagnas, when he began the 18th yagna, the sacrificial horse spoke to him as to why he was performing sacrifice of innocent animals for his own gain. He realised that animal sacrifice was not his forte and it was unfair treatment to them. He immediately stopped the yajna as well as further animal sacrifice. Thus the 18th yajna remained incomplete. Each of these yagna was conducted by a different rishi of that time. Maharaja divided his Kingdom into 17 States. He named these States after the names of the Rishis who had conducted 18 yajna (18th being incomplete). Later on, when Maharaja Agrasen gave Governship of the States to 18 of his sons, they were known by the names of their States. Thus, Aggarwals got their 18 Gotras, named after 18 Rishis of repute at that time.

One of these 18 States of Agrok Republic was Jaminiya Nagar (named after Jaimini Rishi, disciplie of Maharishi Ved Vyas) or Jaitra Sangh, which later on became Jayanti, Jainti, Jeend or Jhind, et al., which is present day Jind. Capital of Jindals shifted to Lajwana Kalan during British Time. Jind has got its name after Jindal or Jaimini rishi. Jindals of the world owe their origin from Jind, established by Jindal, one of Maharaja Agrasen's sons.

About 500 years back, one of Jindals newly wed bride performed sati at the funeral pyre of her husband at the place where our present day Dadirani Mandir is situated. That bride is reventially called Sati Dadi and her husband is called Sata Dada. All Jindals come to this place to perform pooja on Chaitra and Bhadrapada Amavashya days. After wedding their sons and on the birth of a son, Jindals perform special poojas at this sacred place.

A 16-Room Dharamshala has been built there for deveottes and visitors. Construction of Baikunth Dham Temple is in progress. A regular Pujari, named Pandit Balraj Shastri has been appointed to conduct daily pooja at the site. His brother assists him as a Sewadar.
Read more about the Jaimini Rishi, Jindal Gotra and the torch bearers of Jindals.

एक परिचय

अग्रवंश के प्रमुख महाराजा अग्रसेन जी राजा वल्लभ सेन, प्रताप नगर के सुपुत्र थे । इनका जन्म आज से लगभग ५१९० वर्ष पूर्व हुआ । पिता की मृत्यु के उपरान्त इन्होने अग्रोहा जिला हिसार , हरियाणा मे अपने गणराज्य की स्थापना की । इनके १८ विवाह हुए, जिनसे इनके ५४ पुत्र तथा १८ पुत्रियाँ हुई ।

अपने गणराज्य को महाराजा अग्रसेन जी ने १८ गणो मे बाँट दिया तथा अपने जयेष्ट १८ पुत्रो को इनका गणप्रमुख बनाया । महाराजा जी ने अपने अग्रोक अथवा अग्रोहा नगर की स्थापना के पश्चात् भगवान विष्णु तथा महालक्ष्मी जी की प्रतिष्ठा मे १७ यज्ञ करवाये जो पुरोहितो तथा ऋषियौ द्धारा वैदिक रिति से सम्पन्न हुए । १८ वाँ यज्ञ महाराज जी ने बीच मे ही छोड दिया क्योकि वे यज्ञ - अश्व की बलि नहि देना चहाते थे ।

यज्ञ पुरोहितो के नाम से ही यज्ञो को तथा बाद मे यजमान के पुत्रो के गोत्रो को इन्ही पुरोहितो के नाम से ही जाना गया । यही कारण हे कि अग़वंश मे १७-१/२ गोत्र है ।

जिन्दल गौत्र को पहले जैत्रसघं के नाम पर ही जाना जाता रहा हे । इसके प्रमुख पुरोहित जैमिनी ऋषि रहे हैं अर्थात जिन्दल गौत्र के ऋषि जैमिनि तथा गणराज्य जैत्रसघं था ।

कालान्तर मे यह गणराज्य बिखर गया तथा अग्रेंजो के समय मे इसके कई टुकडे हो गए । यहाँ के लोगो को स्थान छोडना पडा और लजवाना कलां के सात लजवाने हो गए । ये लजवाने हें - १. लजवाना कलां, २. लजवाना खुर्द, ३. चुडाली, ४ मेहरडा, ५ सरसा खेडी, ६ फतेहगड तथा मोटा आला ।

इन्ही सात लजवानों में से प्रमुख लजवाना कलां है, जहाँ हमारी दादी जी सती हुई थी । यही सती स्थान जिन्दलों का प्रमुख स्थान है जहाँ पर बच्चों का जन्म, विवाह इत्यादि के बाद गठ- जोडो की जात दी जाती हे क्योंकि समस्त जिन्दल गौत्र का यही से निकास हुआ है इसलिए यही हमारा प्रमुख स्थान् हे ।

ऐसी मान्यता है कि दादी रानी जब यहाँ पर दादा जी के साथ सती हुई थी तब उनकी आयु लगभग नौ वर्ष की थी । जिस स्थल पर सती धर्म निभाया गया था, वह गावँ के बाहर लगभग १-२ कि. मि. की दुरी पर स्थित हे । जहाँ चारो और हरे- भरे खेत- खलियान हैं, उन्ही के बीच दादी रानी का भव्य मन्दिर है ।

कुलदेवी का आर्शिवाद का रहस्य.......

कुलदेवी, कुलदेवता एक गहन और महत्वपूर्ण विषय है । देखने में और सोचने में ये बिषय छोटा लगता है । पर आप जीतना छोटा समझते है, यह उतनी ही पेचिता विषय है । एक रहस्यमयी राज है । एक वहुत विचारनिय बिषयवस्तु है ।

इस विषय को समझने और जानने में मनुष्य को बहुत वक़्त लग जाता है ।

कुलदेवी की कृपा का अर्थ है , सौ सुनार की एक लोहार की । बिना इसके कृपा से किसीके कुल का वंश ही क्या, कोई भी काम, मुकदमा, उलझे काम आदि कुछ भी आगे नहीं बढ सकता । आज जो हम घर मे, व्यापार में छोटी छोटी उलझने, अशान्ति, तनाव देख रहे है । प्राय घर में यिन का आगमन होने का एक ही कारण है की घर कि कुलदेवी व कुलदेवताका रुष्ट होना । यिन की आराधना ना करना । इनका घर में उचित सम्मान ना होना, वहन, वेटी, वहु का सम्मान ना करने से ये रूष्ट हो जाते है ।

आज वहुत से मनुष्य विभिन्न साधनाए तो करते हैं । पर उने उस साधना में सफतला नही मिलती । वह साधना करते समय एक भुल कर बैठते है । मनुष्य कोई भी काम करे या साधना करे । जब तक वह अपनी कुलदेवी की पुजा ना करे वा उसे ना पुकारे तब तक कोई काम में सफलता हासिल नही हो सकती । उनके आर्शिवाद के विना कोई भी साधना करो या काम करो । उसमें यशस्वी मिलनी नामुमकिन है । उलटा कुलदेवी की रुष्टता और ज्यादा बढ़ती जाती हैं । और वह जो भी काम करते है उसमें उन्हे यश नही मिलता है ।

कई गावघर में आज भी ये परंपरा हैं कि घर में पूजा करते वक्त कुलदेवी के रूप में श्रीफल अथवा प्रतिमा का पूजन करते है । हर अष्टमी, नवमी को कुलदेवी की विशेष पुजा आराधना करते है । नवरात्रा के समय घर के चौखट पे पुजा करके कुलदेवी को घर में आगमन करने का न्यौता देते है और नौ दिन नवरात्री धुमधाम साथ मनाते है ।
पुराने समय में घर घर में एक थान हुवा करता था । घर में किसी की शादी हो, वच्चा हुवा हो, नई जमिन जायदाद खरिदी हो, हर मौसम में खेद की पहली फसल उस थान में जाते थे और अपनी कुलदेवी व कुलदेवता का अर्पीत करके उनसे आर्शिवाद लेते थे । और हर काम और खुशी में आगे हो मार्ग दर्शन करने को कहते थे ।

उस समय घर के बुजुर्ग साल में एक वार उस थान पे सपरिवार धोक लगाते थे । पहले रात जगाते थे फीर कुलदेवी देवता को भोग लगाकर सपरिवार भोजन ग्रहण करते थे । वह घर के छोटे छोटे काम भी विना कुलदेवी, कुलदेवताको पुछे विना नहि करते थे । कही वहार की यात्रा भी करते थे तो कुलदेवी कुलदेवता से पहले अनुमती लेते थे । फीर ही यात्रा करते थे । घर के वडे वडे काम से लेकर छोटे से छोटे काम भी विना कुलदेवी के आज्ञा या अनुमती के वैगर नही करते थे ।

साल में दो बार कुलदेवी की साधना एवं हवन आवश्यक करवाते थे । और ये परम्परा कुछ ही गिने चुने घर में आज भी करते है ।
हर घर की एक कुलदेवी होती हैं । आज भारत में 90% परिवार वाले को अपने कुलदेवी के वारे में पता ही नहीं है । कई परिवार को तो पिढियों से अपनी कुलदेवी एवं कुलदेवता का नाम तक पता नही है । उन पिढियों की पिढि दर पिढि में आज तक किसी ने भी कुलदेवी की पुजा आराधना नही कि और ना ही उने इस बारे कोई जानकारी है । और ना ही उनके पुर्वज ने उनको इस बारे में कोई ज्ञान दिया । घर में कुलदेवी व कुलदेवता की पुजा आराधना ना होने के कारण ही एक नकारात्मक दबाव उस घर के कुल के ऊपर बन जाता हैं । और अनुवांशिक समस्या पैदा होने लगती हैं ।

बहुत से घर एवं जगहों पर देखा हैं । कुलदेवी की कृपा के बिना अनुवांशिक बीमारी पीढ़ी में आ जाती है । एक ही बीमारी के लक्षण सभी लोगो में दिखते हैं । मनासिक विकृतियाँ अथवा तनाव, अशान्ति पूरे परिवार में आना, कुछ परिवार एय्याशी की ओर इतने जाते है कि सब कुछ गवा देते हैं, बच्चे भी गलत मार्ग पर भटक जाते हैं, शिक्षा में अड़चनें आती है, शादी विवाह समय पे ना होना, व्यापार में गिरावट आना, चलता फिरता काम एक दम से रुक जाना, अचानक स्वास्थ्य समस्या दिखना, सन्तान ना होना, कोट कचेरी के समस्या होना, मनासिक शान्ति ना होना, यात्राओं में अपघात होना, हर काम में दुर्घटना होना, व्यापार और जीवन में स्थिरता नहीं होना । परिवार के सदस्यों के बिच आपसी प्रेम का अभाव होना, कर्ज से मुक्ति ना मिलना आदि समस्या कुलदेवी एवं देवता का पुजा आराधना ना करने के कारण होता है ।

इन समस्या का समाधान किसी साधना या किसी ध्यान अथवा किसी दस महाविद्या के मंत्रो से दूर नहीं हो सकता । इन सब समस्यायों से छुटकारा पाना है, समाधान पाना है तो कुलदेवी, कुलदेवता का पुजा, आराधना, हवन आदि करना अति आवश्यक है । घर में उनको उचित स्थान देने की जरूरत है । साल में एक वार उनका गुणगान होना जरुरी है । नवरात्रा या विशेष तिथी में कन्या पुजन करके कुलदेवी का आव्हान करना अति आवश्यक है । कोई भी शुभ कार्य हो या पुजा आराधना हो । या दस महाविद्या की दीक्षा हो । सबसे पहले गुरु उस यजमान या साधक को कुलदेवी या कुलदेवता के वारे में पुछता है । और फीर वह पुजा आराधना आरम्भ करता है । कोई भी साधना हो या पुजा, सवसे पहले कुलदेवी की हि आराधना एवं पुजा का विधान है । विना उनके आर्शिवाद के कुछ भी संभव नही है । लेकिन आजकल पुजा, आराधना एवं साधना में गुरु सीधा मंत्र देते है या पुजा करवा देता है । वह कुलदेवी कुलदेवता का आव्हान करता ही नही है । जीस साधना या पुजा में कुलदेवी कुलदेवता का आव्हान नही होता है । यैसी पुजा, आराधना एवं साधना का कोई फल नही मिलता है ।

वह पुजा, आराधना एवं साधना ना होकर एक दिखावा रह जाता है । अगर आज इसे नहीं समझे तो आने वाली कल की पीढ़ी के लिए बहुत सी दिक्कतें आयेगी ।
घर को मंदिर वनाना है, सभी समस्या से दुर रहना है, जीवन वसन्त बहार की तरह बनाना है, घर में शान्त वातावरण, दुखकष्ट रहित जीवन और खुशीया ही खुशीया से भरना है तो हर पल, हर क्षण, हर खुशी, हर दुख में सबसे पहले अपने कुलदेवी को पुकारो । उनका आव्हान करो । उनको स्मरण करो । उनका आर्शिवाद लो । तुम्हारे हर काम वनने लग जायेगे । पतझड वगियाँ में वसन्त लौट आयेगा । चारों और खुशीयाँ ही खुशीयाँ होगी । और ये सव संभव है सिर्फ कुलदेवी, कुलदेवता कि आराधना, पुजा, मानसम्मान एवं उनके आर्शिवाद से ।


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कलयुग की है सच्ची कहानी लिजवाना धाम में प्रगट हुई दादी कल्याणी माहरानी
लिजवाना धाम पावन धरा सुहानी जहां विराजे बड़ी सेठानी
सत की जोत जगावन आई
अग्नि रथ पै दादी विराजी
अमर सुहाग की चुनडी ओडी
श्री दादी जी के मुखमंडल से फूट रही थी किरने चन्द्र दिव्य प्रकाश की
श्री दादी जी का अम्बर तक फहराई चुनडी जिसमें तपन थी आग की
सती के सत है क़िस्मत जागी जिन्दल वंश के भाग की
लिया जिसने भी सच्चे मन से श्री दादी मां का नाम
उसका सारा जीवन खुशियों से मालामाल हो गया
दादी जी के श्री चरणों में नवमी के दिन का कोटि-कोटि नमन
जय श्री दादाजी की

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